Bhagavad Gita: Chapter 17, Verse 3

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोऽयं पुरूषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स: || 3||

सत्त्व-अनुरूपा–मनुष्य के मन की प्रकृति अनुसार; सर्वस्य–सब; श्रद्धा-विश्वास, निष्ठा; भवति–हो जाती है; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन; श्रद्धामयः-श्रद्धा से युक्त; अयम्-यह; पुरुष:-मनुष्य; यः-जो; यत्-श्रद्धा-अपनी-अपनी आस्था के अनुसार; स-उनकी; एव-निश्चय ही; सः-वे।

Translation

BG 17.3: सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके मन के अनुरूप होती है। यह श्रद्धा वैसी ही होती है जैसे वे वास्तव में है।

Commentary

पिछले श्लोक में यह समझाया गया था कि हम सब की आस्था किसी एक स्थान में होती है जहाँ हम अपनी श्रद्धा को स्थिर करते हैं। और जिस आस्था का हम चयन करते हैं वही हमारे जीवन को दिशा प्रदान करती है। वे लोग जो यह मानते हैं कि विश्व में धन ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, वे इसे जोड़ने में अपना पूरा जीवन लगा देते हैं। वे लोग जो इस बात में विश्वास रखते हैं कि प्रतिष्ठा से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है वे लोग राजनीतिक तथा सामाजिक पदों को प्राप्त करने में ही अपना समय और ऊर्जा लगा देते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो श्रेष्ठ गुणों के आधीन में विश्वास रखते हैं और उनकी प्राप्ति के लिए प्रत्येक वस्तु का त्याग करने के लिए तत्पर रहते हैं। 

महात्मा गांधी को सत्य और अहिंसा के बल में विश्वास था तथा दृढ़-संकल्प के बल पर ही उन्होंने अहिंसक आंदोलनों का सूत्रपात किया था। इसके परिणामस्वरूप विश्व के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से भारत को स्वतंत्र करवाने में सफलता प्राप्त हुई। जो लोग भगवत्प्राप्ति के लिए गहन श्रद्धा विकसित करते हैं, वे उसकी खोज में अपने भौतिक जीवन का त्याग कर देते हैं। इस प्रकार श्रीकृष्ण समझाते हैं कि हमारी श्रद्धा की प्रकृति ही हमारे जीवन की दिशा को निर्धारित करती है और हमारी श्रद्धा का गुण हमारे मन की प्रकृति द्वारा निर्धारित होता है।

इस प्रकार अर्जुन के प्रश्न के प्रत्युत्तर में श्रीकृष्ण श्रद्धा के विभिन्न प्रकारों की व्याख्या करते हैं।

Swami Mukundananda

17. श्रद्धा त्रय विभाग योग

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